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2011 का भी एक माह बीत चुका है और हर कोई नए वर्ष के अपने लक्ष्यों को पाने में जुटा है। बॉलीवुड भी नए सत्र में अच्छे नतीजों की आशा कर रहा है। मुझे पिछले गणतंत्र दिवस के एक कार्यक्रम की याद आ रही है। हर वर्ष होने वाले मेल-मिलाप के इस कार्यक्रम में इस बार भी 25000 से अधिक लोग इकट्ठा हुए थे, जिनमें बड़ी संख्या में बॉलीवुड के श्रमिक शामिल थे। हर वर्ष इंडस्ट्री के वर्कर, लाइट ब्वाय, कारपेंटर, स्पाट ब्वाय आदि गणतंत्र दिवस मनाने के लिए इस कार्यक्रम में इकट्ठा होते है। इस कार्यक्रम में लाटरी की पद्धति के आधार पर इनाम निकाले जाते है। यह इनाम नकद राशि के रूप में होता है, जिससे उन लोगों को कठिन वक्त में कुछ आर्थिक सहायता पहुंचाई जा सके। समारोह में गृह राज्य मंत्री गुरुदास कामत भी मौजूद थे और उनकी मौजूदगी में ही नाखुश श्रमिकों और एसोसिएशन के पदाधिकारियों के बीच झड़प हो गई। श्रमिकों का कहना था कि उनसे जितने घंटे काम लिया जाता है वह अमानवीय है और उन्हे इसमें राहत दी जानी चाहिए। जब लग रहा था कि स्थिति खतरनाक तरीके से नियंत्रण से बाहर हो रही है तब मैंने हस्तक्षेप करने की कोशिश की। संयोग से उस समारोह में मीडिया का कोई प्रतिनिधि मौजूद नहीं था जिससे बॉलीवुड की तमाम तड़क-भड़क और चकाचौंध के पीछे की हकीकत सामने नहीं आ सकी।
इस घटनाक्रम ने मुझे यह सोचने के लिए विवश कर दिया कि मानव संस्कृति चीजों को छिपाने या बनावटी ढंग से प्रस्तुत करने पर टिकी है। हमारे टेलीविजन चैनलों और समाचार पत्रों के माध्यम से हर सुबह, हर रोज जो संदेश आता है वह भी चीजों को नए ढंग से प्रस्तुत करने पर टिका होता है। सच्चाई उसके नीचे ही दबी रहती है जो कुछ प्रस्तुत किया जाता है। सवाल यह है कि क्या यह सब एक व्यक्ति के अपने स्तर से आरंभ नहीं होता? सच्चाई यह है कि हम वह नहीं हैं जो हम दिखाते है, बल्कि वह है जो हम छिपाते है। हर उत्पाद एक काल्पनिक प्रस्तुतीकरण ही है। विज्ञापन उद्योग जिन चित्रों के सहारे किसी उत्पाद को बढ़ावा देने की जीतोड़ कोशिश करता है उन्हे मनमाफिक तरीके से तैयार किया जाता है। विशेषज्ञ अपनी पूरी प्रतिभा लगा देते है उन्हे आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करने में। आश्चर्य नहीं कि वे अपने इस काम के लिए भारी-भरकम फीस वसूल करते है। इस प्रक्रिया में लोगों के सामने जो चीज आती है वह अपनी मूल प्रकृति से एकदम अलग होती है।
सभी सवालों में सबसे बड़ा सवाल यह है कि पैकेजिंग इंडस्ट्री के बिना हमारी संस्कृति कैसी होगी, हमारी दुनिया किस तरह दिखेगी? यह निश्चित रूप से एक कठिन सवाल है और मैं विश्वास के साथ नहीं कह सकता हूं कि हम इस सवाल का उत्तर जानना चाहते है। कृपया मुझे गलत न समझें, क्योंकि मैं वैधानिकता, प्रमाणिकता के दर्शन की दलीलें नहीं दे रहा हूं, क्योंकि मुझे लगता है कि इसके बिना दुनिया किसी दु:स्वप्न से कम नहीं होगी और हममें से कोई भी सच का सामना कर नहीं सकेगा। कोई भी इतनी कठिन हकीकत को झेल नहीं पाएगा, लेकिन क्या हम पैकेजिंग को अपनी संस्कृति का निर्धारक तत्व बनाकर मुसीबत को आमंत्रण नहीं दे रहे है? क्या हम सभी फिल्म इंडस्ट्री की तरह ठीक उसी तरह आत्मघाती रवैया नहीं अपना रहे है जब हम अपने ही हाइप के शिकार बन जाते है और झूठे विज्ञापनों की दुनिया पर भरोसा करना आरंभ कर देते है? दूसरे शब्दों में कहे तो सच्चाई पर पर्दा डालकर चकाचौंध के वातावरण में जीने का दिखावा करने लगते है। हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते है कि इंडिया शाइनिंग के अभियान के बाद भाजपा का क्या हश्र हुआ था? याद कीजिए जब प्रधानमंत्री ने मुंबई और शंघाई का जिक्र ही किया था तो उन्हे किन हालात से जूझना पड़ा था? इंद्र देवता ने ऐसा प्रकोप दिखाया कि चमकती मुंबई को डूबती मुंबई बनने में देर नहीं लगी। बाद में देश-दुनिया ने यह जाना कि जिस मुंबई को शंघाई बनाने की बात की जा रही थी वह वास्तव में झुग्गी-झोपड़ियों का एक शहर मात्र है। अमेरिका का भी उदाहरण लें, जिसने संपन्नता के इतने महल खड़े कर लिए थे कि दुनिया चकित होकर उसे देखती थी। यह वैभव का एक गुब्बारा मात्र था, जो एक दिन फटा तो लगभग पूरी दुनिया कंगाली के कगार पर पहुंच गई।
कहानी का नैतिक संदेश यह है कि जब कहीं भी कोई संस्कृति चीजों को तोड़-मरोड़कर पेश करने लगती है तो पर्दा डालने की प्रवृत्ति एक गुण का रूप ले लेती है तो यह स्पष्ट है कि उस संस्कृति में रहने वाले लोग भी इसकी नकल करने लगते है। विनाश की प्रक्रिया यहीं से आरंभ होती है। हर फिल्म निर्माता यह सोचता है कि वह करोड़ों रुपये कमाने से एक कदम दूर है, जबकि सच्चाई यह होती है कि उसे यह नहीं पता होता है कि अगली फिल्म के लिए उसके पास कहां से पैसा आने वाला है। यह सही समय है जब हम सभी को सच्चाई पर पर्दा डालने से बचना चाहिए। हम वे सपने देखें जो हकीकत के करीब हों। वास्तव में इस बारे में कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल। हमें खुद को पैकेजिंग के बिना चीजों को देखने की क्षमता विकसित करनी होगी। रेगिस्तान में मरीचिका वह स्थान नहीं हो सकती जहां आपको जीवन मिल जाए। जेम्स बांड का किरदार निभाने वाले रोजर मूर ने एक बार मुझसे कहा था कि सबसे बड़ा झूठ वह झूठ होता है जो आप खुद से बोलते है।
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