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जब मैंने अपने भाई मुकेश भट्ट को बताया कि मैं भारत-पाक स्वतंत्रता दिवस समारोह में भाग लेने वाघा बॉर्डर जा रहा हूं तो उन्होंने कहा, ‘भारत-पाक शांति के लिए काम करना बेवकूफी नहीं है, किंतु आजकल के हालात में खतरनाक जरूर है।’ वाघा बॉर्डर पर भारत और पाकिस्तान से सैकड़ों की तादाद में शांति प्रेमी इस मौके पर उपस्थिति होते हैं। जब मैं हवाई अड्डे के लिए निकला तो मुझे खयाल आया कि ईसा मसीह ने कहा था कि शांतिदूत ईश्वर के बच्चे के समान हैं, किंतु 21वीं सदी में भारत और पाकिस्तान, दोनों जगह अगर कोई शांति की बात करता है तो उसे कल्पनालोक में खोए स्वप्नजीवी के रूप में नकार दिया जाता है। यही नहीं, उसे ऐसा पराजयवादी घोषित कर दिया जाता है जो यथार्थ से मुंह फेरे हुए है।
हाल ही में, महान गायक राहत फतह अली खान पर पाकिस्तान के कुछ प्रतिष्ठानों में रॉ के एजेंट का आरोप लगाया गया था। राहत का दोष महज इतना है कि वह ऐसे गाने गाते हैं, जिनमें इस क्षेत्र की साझा विरासत की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। यह विरासत 1947 में भारत-पाक विभाजन से सदियों पुरानी है। इन शक्तियों ने आरोप लगाया कि राहत अली खान भारतीय खुफिया एजेंसियों के साथ मिलकर अपने गीतों के माध्यम से पाकिस्तानी संस्कृति का तिरस्कार कर रहे हैं। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की तरह पाकिस्तानी एजेंसी ने उन्हें एक टेलीविजन शो में भाग लेने से रोक दिया। इस शो में सीमाओं के दोनों ओर से सेतु के रूप में बच्चों को गीत-संगीत की प्रतिभा का प्रदर्शन करना था। पाक एजेंसियों के अनुसार इस प्रकार के कार्यक्रमों में भारतीय संस्कृति का गुणगान होता है, जिस कारण उन्हें इसमें भाग नहीं लेना चाहिए। अगर इस रवैये पर विचार किया जाए तो इसमें कुछ भी नया नहीं है। 1930 के दशक में जिन लोगों ने शांति की वकालत की उन्हें हिटलर का सहायक मान लिया गया और उन पर मामले दर्ज किए गए।
इतिहास गवाह है कि शांति के प्रयासों को हमेशा अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा है, जहां शांति दूतों को पूर्वाग्रहों से ग्रस्त विद्वानों की अदालत में लाचार खड़े रहना पड़ता है। शांति दूतों को हमेशा से गलत समझा जाता रहा है और उनके प्रति दुर्भावना रखी जाती है। शेक्सपियर ने लिखा है, ‘शांति नग्न, लाचार और क्षत-विक्षत है।’ आज के समय में भारत और पाकिस्तान के बीच शांति की बात करना किसी अपमान की तरह है और अक्सर इसे कायरता या स्वार्थयुक्त माना जाता है। इसका मतलब है कि जो कुछ सही है उसके लिए लड़ने के प्रति अनिच्छुक होना।
26/11 की घटना के बाद हर कोई यह देखकर स्तब्ध था कि तथाकथित बुद्धिजीवियों ने भी अपने देश में शांति प्रक्रिया को किनारे रख दिया था और उन लोगों के साथ शामिल हो गए थे जो पाकिस्तान के साथ युद्ध के लिए उतावले रहते हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एक वर्ग ने भी उस दौरान गदर और बॉर्डर सरीखी फिल्में दिखाकर खुद को इस कोरस में जोड़ लिया था। उन पर सही ही तनाव बढ़ाने का आरोप लगाया गया। अहिंसा की इस भूमि में अचानक ऐसा माहौल बन गया कि शांति की बात करना बहुत दूर की कौड़ी नजर आने लगी। घृणा लोगों के मन-मस्तिष्क में हावी थी।
बदनाम जर्मन नाजी हरमन गोरिंग ने न्यूरमबर्ग मुकदमे के दौरान यह गवाही दी थी कि लोगों को युद्ध के लिए भड़काना बहुत आसान होता है। गोरिंग के मुताबिक आपको बस लोगों से इतना कहना होता है कि आप पर हमला हो रहा है। आप देशभक्ति के अभाव की बात कहकर शांति कार्यकर्ताओं की निंदा कर सकते हैं। वास्तव में दुनिया के सभी हिस्सों में ज्यादातर युद्ध-पिपासु लोग यही करते हैं। बुद्धिमान लोग उनके इस प्रकार के हथकंडों में खुद को हाशिये पर पाते हैं। युद्ध की इच्छा रखने वाले अथवा लोगों को उकसाने वाले लोग एक क्षण के लिए भी यह नहीं सोचते कि जो युद्ध का विरोध कर रहे हैं वे शायद उनसे कहीं अधिक देशभक्त हैं।
क्या राष्ट्र सम्मान के नाम पर अपने बेटों और नागरिकों को युद्ध की आग में झोंक देना ही देशभक्ति है? कुछ लोग कहेंगे कि हां, जब आप घायल हों तो आपकी प्रवृत्ति पलटवार करने की होती है, लेकिन क्या राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जिन्हें पिछली शताब्दी का सबसे बड़ा नेता माना जाता है, ने हमें यह नहीं बताया था कि एक आंख के बदले एक आंख ले लेने से पूरी दुनिया अंधी हो जाएगी? क्या हम सब महात्मा गांधी के आदर्र्शो की केवल दुहाई ही देते रहेंगे और उनके कहे एक भी शब्द पर वास्तविक अमल नहीं करेंगे। हमारा देश तो संतों, महात्माओं और ऋषियों का देश है, जहां नैतिकता के बड़े-बड़े उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं। हमारे महापुरुषों ने हमेशा शांति की वकालत की है।
वास्तव में, सवा अरब भारतीयों को संपन्नता की ओर ले जाने का एकमात्र पथ शांति का है, युद्ध का नहीं। आइए, हम सब अपने बच्चों के मुंह से निवाले चुराना बंद करें, अपने भाइयों के खून को बिकने से रोकें, क्योंकि युद्ध के लिए विकसित देशों से हथियार खरीदने से हम अपने देशवासियों का पेट नहीं भर सकेंगे। तथ्य यह है कि भारत और पाकिस्तान दुनिया में सबसे अधिक हथियार और गोला-बारूद खरीदने वाले देशों में शामिल हैं। पाकिस्तान बेशक हमसे भी ज्यादा हथियार खरीदता है। यदि हमारे बीच शांति होगी, तो यह पैसा शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे के निर्माण में खर्च किया जा सकेगा, जिससे गरीब जनता और राष्ट्र, दोनों का भला होगा। देखिए आज पाकिस्तान में क्या हो रहा है? वहां की सरकार के पास युद्ध की तमाम योजनाएं हैं, लेकिन बाढ़ में फंसे लोगों को बचाने के लिए हेलीकॉप्टर नहीं हैं। क्या भारत भी इसी रास्ते पर चलना चाहता है?
Source: Jagran Yahoo
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